कई बार मन एक बेलगाम घोड़े की तरह किसी भी दिशा में सरपट दौड़ने लगता है तो कभी उन बातों को लेकर विवल हो उठता है जिसका उस पर उसका कोई नियंत्रण ही नहीं | ऐसे ही क्षणों के लिए शायद साहिर लुधियानवी ने यह गीत लिखा है |
कवि : साहिर लुधियानवी
मन रे तू काहे न धीर धरे
ओ निर्मोही , मोह न जाने, जिनका मोह करे
मन रे तू काहे न धीर धरे |
इस जीवन की चढ़ती ढलती
धूप को किसने बाँधा
रंग पे किसने पहरे डाले
रूप को किसने बाँधा
काहे ये जतन करे | मन रे .......
उतना ही उपकार समझ
कोई जितना साथ निभा दे
जनम मरण का मेल है सपना
ये सपना बिसरा दे
कोई न संग मरे | मन रे .......
यह गीत सुनकर पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि यह गीत अधूरा है | हो न हो साहिर साहब ने इस गीत में एक या दो पद और लिखे होंगे जो फिल्म में सम्मिलित नहीं किये गए | खैर मैंने अपनी सीमित क्षमता से इस गीत में चार पंक्तियाँ जोड़ी है | आशा है जब परलोक में साहिर साहब से भेंट होगी तो वे मुझे इसके लिए क्षमा करेंगे :) |
इतना तू सोचे मगर
करने वाला और
इच्छा की तूने सीमा न जानी
देने वाला और
काहे तू स्वप्न बुने | मन रे तू कहे न धीर धरे .... |
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