Monday, June 11, 2012

Bhor ( भोर )

वैसे तो इंडियन ओशियन के सभी गीत एक से बढ़कर एक है किन्तु यह गीत मुझे सबसे अधिक पसंद है | इस गीत में कवि से सदा सक्रीय रहने का सन्देश बहुत ही सुन्दर तरीके से दिया है | 

गौर करे तो ऐसा लगता है कवि शारीरिक शिथिलता की अपेक्षा मानसिक शिथिलता की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं | हमारा देश शाशीरिक शिथिलता की अपेक्षा मानसिक शिथिलता से ही तो अधिक आहत हुआ है | वरना क्या कारण है कि आज भी कॉलेज में दाखिले से पहले विद्यार्थी की जाति पूछी जाती है, देश में करोड़ो के लिए दो जून की रोटी नहीं है लेकिन पत्थर की मूर्तियों को मनो घी और दूध चढ़ रहा है, क्यों अलग भाषा बोलने वाले या अलग धर्म का अनुसरण करने वालों को हीन द्रष्टि से देखा जाता है, क्यों चाँद और तारों को देखकर रिश्ते तय किये जाते है | आखिर कब हमारी सामाजिक चेतना का पंछी उन्नीसवीं सदी के वृक्ष से उड़ कर इक्कीसवी सदी के वृक्ष की ओर प्रयाण करेगा | 

कवि : संजीव शर्मा  

भोर भोर भोर भोर, भोर-भई

एक उड़ता पंछी
जा बैठा एक डाल
जा बैठा एक डाल | भोर भोर ......

खुशबू डाल की मन हर ले गई
मन हर ले गई
खुशबू डाल की मन हर ले गई
मन हर ले गई
गजब तरंग जमाल | भोर भोर ........

सांस सांस चढ़े इश्क का जादू 
रह रह करे कमाल 
कोन घड़ी में चुनी डाल थी 
कोसे सुध बुध हाल | भोर भोर ........

पंछी कहे किस गगन उडु में 
बेहतर जो इस डाल 
पंख सुनहरी शहद चढ़ गया 
अंतर थम गई चाल | भोर भोर .........

क़त्ल भी ऐसा हुआ 
कि पंछी मर गए मालामाल 
अल्लाह मेरे चिडिबाज़ ने ऐसा फैका जाल 
ऐसा क़त्ल हुआ, मालामाल हुआ, क़त्ल भी होके मालामाल 
क़त्ल भी ऐसा हुआ 
कि पंछी मर गए मालामाल 
कतरा कतरा आसमान है 
बुझी असल उड़ान || भोर भोर ........

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